नंदीश्वर द्वीप की पूजा: पवित्र जैन स्तुति और महत्त्व

नंदीश्वर द्वीप की पूजा

नंदीश्वर द्वीप की पूजा: जैन धर्म में महत्व

नंदीश्वर द्वीप की पूजा जैन धर्म में अति पवित्र और महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह पूजा भगवान जिनेंद्र के 52 जिनालयों की आराधना का प्रतीक है। नंदीश्वर द्वीप, जो आध्यात्मिक रूप से अनुभव किया जाता है, जैन धर्म में भक्ति, शांति और मोक्ष प्राप्ति का माध्यम है।


नंदीश्वर द्वीप पूजा की विशेषताएँ

  • कविश्री द्यानतराय द्वारा रचित स्तुति:
    यह पूजा गहन भक्ति और आत्मशुद्धि का संदेश देती है।
  • 52 जिनालयों की पूजा:
    इसमें भगवान जिनेंद्र की प्रतिमाओं की अर्चना और मंत्रों का उच्चारण शामिल है।
  • पवित्र सामग्री का उपयोग:
    जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, और धूप जैसे पवित्र वस्त्रियों से पूजा संपन्न होती है।

पूजा के मुख्य चरण

1. आह्वान

ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्!

यह चरण भगवान जिनेंद्र और उनकी प्रतिमाओं को आमंत्रित करने का प्रतीक है।

2. पूजा की स्तुति

पूजा में मुख्य स्तुति और उनके अर्थों को जपते हुए भगवान की आराधना की जाती है। प्रमुख मंत्रों का उदाहरण:

कंचन मणि मय भृंगार, तीरथ नीर भरा |
तिहुँ धार दर्इ निरवार, जामन मरन जरा ||

3. अर्घ्य और सामग्री अर्पण

  • जल अर्पण:
    “जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।”
  • चंदन अर्पण:
    “भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।”
  • अक्षत अर्पण:
    “अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।”
  • पुष्प अर्पण:
    “कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।”
  • नैवेद्य अर्पण:
    “क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।”
  • दीपक अर्पण:
    “मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।”
  • धूप अर्पण:
    “अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।”
  • फल अर्पण:
    “मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।”

(आडिल्ल छन्द)

सरब-परव में बड़ो अठार्इ परव है|
नंदीश्वर सुर जाहिं लेय वसु दरब है||
हमें सकति सो नाहिं इहाँ करि थापना|
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षुविद्यमान द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षुविद्यमान द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षुविद्यमान द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमासमूह! अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट्! (सत्रिधिकरणम्)

कंचन मणि मय भृंगार, तीरथ नीर भरा |
तिहुँ धार दर्इ निरवार, जामन मरन जरा ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

भव तप हर शीतल वाच, जो चंदन नाहीं |
प्रभु यह गुन कीजै साँच, आयो तुम ठाहीं ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

उत्तम-अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहे |
सब जीते अक्ष समाज, तुम सम अरु को है ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

तुम कामविनाशक देव, ध्याऊँ फूलन सों |
लहुँ शील लच्छमी एव, छूटूं सूलन सों ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

नेवज इंद्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा |
चरु तुम ढिंग सोहे सार, अचरज है पूरा ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

दीपक की ज्योति प्रकाश, तुम तन माहिं लसे |
टूटे करमन की राश, ज्ञान कणी दरसे ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

कृष्णागरु धूप सुवास, दश दिशि नारि वरें |
अति हरष भाव परकाश, मानों नृत्य करें ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

बहुविधि फल ले तिहुँ काल, आनंद राचत हैं |
तुम शिव फल देहु दयाल, तुहि हम जाचत हैं ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हूँ |
द्यानत कीज्यो शिव खेत भूमि समरपतु हूँ ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

4. जयमाला

(दोहा)
कार्तिक फागुन साढ़ के, अंत-आठ-दिन माँहिं |
नंदीश्वर सुर जात हैं, हम पूजें इह ठाहिं ||१||

(लक्ष्मी छंद)
एक सौ त्रेसठ कोडि जोजन महा |
लाख चौरासिया एक-दिश में लहा ||
आठमों द्वीप नंदीश्वरं भास्वरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||२||

चार-दिशि चार अंजनगिरी राजहीं |
सहस-चौरासिया एक दिशि छाजहीं ||
ढोल सम गोल ऊपर तले सुन्दरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||३||

एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी |
एक इक लाख जोजन अमल-जल भरी ||
चहुँ दिशा चार वन लाख जोजन वरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||४||

सोल वापीन मधि सोल-गिरि दधिमुखं |
सहस दश महाजोजन लखत ही सुखं ||
बावरी कोण दो माँहि दो रतिकरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||५||

शैल-बत्तीस इक सहस जोजन कहे |
चार सोलै मिलैं सर्व बावन लहे ||
एक-इक सीस पर एक जिनमंदिरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||६||

बिंब अठ एक सौ रतनमयि सोहहीं |
देव देवी सरब नयन मन मोहहीं ||
पाँचसै धनुष तन पद्म-आसन परं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||७||

लाल नख-मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं |
स्याम-रंग भौंह सिर-केश छवि देत हैं ||
वचन बोलत मनों हँसत कालुष हरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||८||

कोटि-शशि-भानु-दुति-तेज छिप जात है |
महा-वैराग-परिणाम ठहरात है ||
वयन नहिं कहें, लखि होत सम्यक्धरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||९||

(सोरठा छन्द)
नंदीश्वर-जिन-धाम, प्रतिमा-महिमा को कहे |
‘द्यानत’ लीनो नाम, यही भगति शिव-सुख करे ||
ओं ह्रीं श्री नंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिशु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।


नंदीश्वर द्वीप स्तुति का विश्लेषण

प्रमुख छंद

  • आडिल्ल छन्द:
    पूजा का यह हिस्सा भक्तों के जीवन के कष्टों को दूर करने और भक्ति के माध्यम से शांति का अनुभव कराने का संदेश देता है।
  • दोहा और लक्ष्मी छंद:
    इन छंदों में नंदीश्वर द्वीप की रचना, उसका विस्तार और वहां की पवित्रता का वर्णन है।

“एक सौ त्रेसठ कोडि जोजन महा |
लाख चौरासिया एक-दिश में लहा ||”


पूजा के लिए उपयोगी सुझाव

  • पूजा करते समय शुद्ध मन और शांत वातावरण बनाए रखें।
  • सामग्री और मंत्रों का उच्चारण सही ढंग से करें।
  • पूजा के अंत में जयमाला और पुष्पांजलि अर्पित करना न भूलें।

निष्कर्ष

नंदीश्वर द्वीप की पूजा जैन धर्म की आध्यात्मिक परंपराओं का हिस्सा है, जो आत्मा को शुद्ध करती है और मोक्ष का मार्ग दिखाती है। यह पूजा भगवान जिनेंद्र के प्रति भक्ति और समर्पण का प्रतीक है।

Author: Jain Sattva
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