Ratnakar Pachisi Lyrics: A Soulful Devotional Hymn

Ratnakar Pachisi Lyrics

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Shree Ratnakar Pacchisi Hindi Lyrics

श्री रत्नाकर पच्चीसी हिन्दी | Shree Ratnakar Pacchisi Hindi

मंदिर हो मुक्ति के तुम मंगलमयी क्रीड़ा भरे ।
सुर इन्द्र मानव हर कोई, प्रभु आपकी सेवा करे ॥
सर्वज्ञ हो स्वामिन् सभी, अतिशय तुम्हारे पास में ।
जयशील रहो तुम सर्वदा, आनन्द विलास में ॥१॥

त्रिभुवन के हो आधार एवं, करुणा के अवतार हो ।
और वैद्य हो दुर्वार इस, संसार के उस पार हो ॥
वीतराग वल्लभ विश्व के, तुम से करूं मैं याचना
सब जानते हो फिर भी मैं, कहता हूँ मेरी यातना।।२।।

माता पिता के पास क्या, बच्चे नहीं कुछ बोलते ।
मन में जो आये कहते हैं, अपने हृदय को खोल के ॥
दिल की व्यथा को व्यक्त करता, हूँ आपके पास में ।
जैसा भी है कहता हूँ मैं, इस में गलत क्या बात है ? ॥३॥

नहीं दान कुछ दिया कभी, नहीं शील का पालन किया।
नहीं देह को तब से सुखाया, नहीं भाव का जलता दीया ॥
चारों तरह के धर्म की, मैंने न की आराधना ।
संसार के सागर में, मेरा व्यर्थ घूमना-घामना ॥४॥

मैं क्रोध अग्नि से जला, और लोभ सर्प डसा मुझे।
अभिमान के अजगर ने निगला, किस तरह ध्याऊँ तुझे ?॥
मन मेरा माया जाल में, मैं किस तरह इससे बचें ?।
परवश कषायों के हुआ मैं, किस तरह तुमको भजूं ? ॥५॥

गत जन्म या इस जन्म में, हितकारी कुछ किया नहीं।
दुःख के अंधेरों से घिरा, सुख का दीपक मिलता नहीं ॥
मेरा जन्म इस जगत में, गिनती बढ़ाने को हुआ।
मैं जिन्दगी की बाजी हारा, हारा जैसे कोई जुआ ॥६॥

ये चाँद का टुकड़ा तुम्हारा, पीयूष की वर्षा करें ।
भीगा नहीं पत्थर हृदय, मन मयूर को तरसा करें ॥
पत्थर सी मेरी आंखों को, कमल बना ओ प्रभु ।
अस्थिर मन को स्थिरता का, पाठ सिखलाओ विभु ॥७॥

संसार सागर में भटकते, पुण्य से मुझको मिले ।
वह ज्ञान-दर्शन-चरण रत्न, त्रयी के फूल खिले ॥
फिर भी यूं लापरवाही से, सब कुछ गवां डाला प्रभु ।
जाऊँ कहाँ, किसको बताऊँ, मन का यह छाला प्रभु ? ॥८॥

दुनिया को मैं ठगता रहा, वैराग्य का नाटक किया ।
और धर्म का उपदेश भी, लोगों को सुख करने दिया ॥
विद्या भी सीखी मैंने, केवल बहस करने के लिये ।
रचा साधु का ढोंग अपना, दंभ ढकने के लिये ॥९॥

गाकर पराये दोष मेरे, होंठ गंदे हो गये।
ये नैन मेरे लुब्ध हो, खूबसूरती में खो गये ॥
मन मेरा पापी है, बुरा सोचे मैं हरदम अन्य का ।
ओ नाथ मेरा होगा क्या, कितनी है मेरी अधमता ? ॥१०॥

छलनी हुआ मेरा हृदय, इस वासना के घाव में ।
मैं अंध होकर फँस गया, इन्द्रिय-सुख के दाव में ॥
मारे शर्म के क्या कहूँ, प्रभुवर आपके सामने ? ।
कुछ भी छुपा नहीं आपसे, आया मैं माफी माँगने ॥ ११ ॥

नवकार मंत्र भूला दिया हाय, अन्य मंत्र के मोह में l
आगम की वाणी नहीं सुनी, पर शास्त्र के व्यामोह में ।
कुदेव के सहवास में, बुरे कर्म करता रहा ।
हीरे के बदले कांच से, अपना भरम भरता रहा ॥१२॥

वीतराग पथ को छोड़कर, डूबा रहा रंगराग में
जल-जल के में पागल हुआ, इस वासना की आग में ।।
हाय, रूपसी के रूप में, हुई लुब्ध मेरी आत्मा ।
कैसे बचूं इस ‘काग’ से, कुछ बोलो न परमात्मा ? ॥१३॥

खूबसूरती में लुब्ध होकर, आत्मधन खोता रहूँ ।
रंग वासना का उतरे कैसे, लाख मैं धोता रहू ॥
इस ज्ञान-वारि से भी मन का, दाग यह जाना नही ।
कुछ रास्ता दिखाओ मुझे, समझ में आता नहीं ॥१४॥

पावन नहीं है देह मेरी, गुणों का भी संचय नहीं ।
ऊँची कला का साधनामय, मेरा व्यक्तित्व नहीं ॥
नहीं मुझमें कुछ भी योग्यता, पर गर्व से मगरूर हूँ।
चारों गति में भटकता मैं, हाय कितना मजबूर हूँ ॥१५

यह उम्र बढ़ती जा रही, पर पापबुद्धि न छूटती
सांसों की डोरी टूटती, पर वासना मुझे लूटती Il
उपचार करूं मैं शरीर का, मेरी आत्मा को विसार के ।
मोह के प्रवेश झुलसता, रात दिन मैं विकार से ॥१६॥

आत्मा नहीं, परलोक नहीं है, पुण्य-पाप फिजूल है।
मैं दुर्जनों की बात में, फंसता रहा सब भूल के ।
थे आप केवलज्ञानी पर, अंधकार में मैं खो गया ।
पापों का दामन थाम के हाय, क्या से क्या मैं हो गया ॥१७॥

कभी मन लगाकर देव और, पूज्यों की पूजा की नहीं ।
साधु जीवन, श्रावक-जीवन के व्रत स्वीकार भी नहीं ॥
नर-तन को पाया भी मैं, तो रात-दिन रोता रहा ।
मैं अमर की आशा संजोये, बबूल को बोता रहा ॥१८॥

मैं कामधेनु कल्पतरु, चिंतामणि के प्यार में ।
सब कुछ पर मैं मूढ़ होकर, भटकूं इस संसार में ॥
शाश्वत सुख को देनेवाले, धर्म को भुलवा दिया ।
देखो मेरी नादानी को देखो, मुझको हाय, रुलवा दिया ॥१९॥

संसार के सुखभोग को, नहीं रोगमय माना कभी,
धन की प्रतीक्षा की सदा, पर मृत्यु को जाना नहीं ॥
आसक्ति को मैंने कभी नहीं, नर्क का रास्ता गाना ।
मधु-बिन्दु की लालच में डूबा, अंजाम को सोचे बिना ॥२०॥

कभी शुद्ध विचारों का पालन, स्वच्छ मन से नहीं किया ।
उपकार करके अन्य पे, यश का मजा भी नहीं लिया ॥
नहीं तीर्थों का उद्धार करके, पुण्य को अजीत किया।
फिजूल चौरासी के चक्कर, में भटकता मैं फिरा ॥२१॥

गुरुवाणी में वैराग्य का, रंग मेरे दिल को नहीं लगा।
फिर दुर्जनों की बात में शांति मिलेगी खाक क्या ? ॥
अध्यात्म तो बिलकुल नहीं, मैं कैसे भवसागर तिरूँ ? ।
फूटी हुई मटकी को भरने, के लिये पागल फिरू ॥२२॥

गत जन्म में नहीं पुण्य किया, और नहीं करता अभी।
अगले जनम में फिर मैं सुख को, पाऊँगा कैसे कभी ॥
पिछला व अगला और अभी का, तीनों जन्म गवां दिये ।
स्वामिन् त्रिशंकु जैसे मैं, आकाश में लटका रहा ॥२३॥

ज्यादा कहूँ क्या आपबीती, नाथ ! आपके सामने ।
देवों से पूजित देव प्रभुवर ! आप सब कुछ जानते ॥
त्रिभुवन के ज्ञाता आप से, रह सकता है क्या कुछ छुपा ? ।
लाखों-करोड़ों मैं भला फिर, पैसे का हिसाब क्या ? ॥२४॥

तुमसा नहीं कोई अन्य इस जगत में, उद्धार जो मेरा करे ।
मुझ सा और न दीन-हीन दूसरा, तुमको मिलेगा वरे ॥
मुक्ति मंगलमय प्रभु मैं तुमसे, लक्ष्मी नहीं मांगता ।
देना सम्यक रत्न आप हमको, इतनी करूं प्रार्थना ॥२५॥

Understanding the Significance of Ratnakar Pachisi

“Ratnakar Pachisi” is a powerful hymn that resonates with devotees, reflecting their aspirations and pleas for spiritual guidance and liberation. The lyrics convey deep emotions and the soul’s yearning for divine grace and wisdom. This hymn is often recited during religious ceremonies and personal meditation sessions to invoke a sense of peace and devotion.

By sharing the “Ratnakar Pachisi lyrics,” we aim to help you connect with this beautiful spiritual tradition. Whether you are looking to enhance your spiritual practice or simply appreciate the poetic depth of these verses, these lyrics are a valuable resource.

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Author: Jain Sattva
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